Opinion

वर्ल्ड इंडीजिनस डे: औपनिवेशिक ताकतों से रहना होगा सतर्क

भारत समेत कुछ देशों में 9 अगस्त विश्व वर्ल्ड इंडीजिनस डे मनाया जा रहा है। यह दिन जनजातीय समाज की संस्कृति के विरुद्ध उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा किए गए अत्याचार, नरसंहार व सांस्कृतिक आक्रमण की याद दिलाता है। आज भी यह ताकतें कथित समाज सेवा के लिबास में प्रकृति पूजक जनजातीय समाज की अस्मिता को नष्ट करने में जुटी हैं। वर्ल्ड इंडीजिनस डे का इतिहास जनजातीय समाज को लेकर पश्चिम के दोहरे चरित्र को उजागर करता है। कोलंबस द्वारा 1492 में अमेरिका की खोज के साथ यूरोप के कई नाविक और अलग-अलग समूह वहां पहुंचने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने वहां की जमीन पर कब्जा शुरू कर दिया। जनजातीय समाज को निशाना बनाते हुए उनके रीति-रिवाज, संस्कृति, मान्यताओं पर आघात-किया गया। जनजातीय समाज के जमीन और संसाधनों के लिए हुए संघर्ष में उन्हें व्यापक नरसंहार का दंश भी झेलना पड़ा। यह अमेरिका,कनाडा, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील समेत अलग-अलग देशों में हुआ। अकेले अमेरिका में जनजातीय समाज की जनसंख्या 15वीं सदी से 18वीं सदी तक 14.5 करोड़ से लेकर मात्र 70 लाख तक पहुंच गई। इंडियन रिमूवल एक्ट 1830 के जरिए 70 लाख जनजातीय निवासियों को अमेरिका से खदेड़कर मिसिसिपी नदी के पश्चिम तट पर बंजर इलाके में धकेल दिया गया। आज भी इस घटना को आंसुओं की नदी के नाम से याद किया जाता है। ब्राजील में सन 1500 में 30-50 लाख जनजातीय आबादी थी जो कि 2021 में घटकर 9 लाख रह गई। पुर्तगाली गुलाम शिकारी सेनाएं (बांदेइरांतेस)- जनजातीय समाज के लोगों को बंदी बनाकर मौत के घाट उतार देती थीं। 1628 में साओ पाउलो क्षेत्र में बांदेइररांतेस ने 60 हजार गुआरानी (दक्षिण अमेरिकी) जनजातीय लोगों का जनसंहार किया। उनके गांव जला दिए गए। कनाडा में एंग्लिकन मिशन द्वारा 1800 के दशक में मिशनरियों द्वारा ओजिबवे जनजातीय समुदाय के बच्चों को जबरन मिशनरी स्कूलों में भेजा। यहां पारंपरिक औषधियों का प्रयोग करने पर बच्चों को पीटा जाता था। 1876-1996 के बीच कैथोलिक एंग्लिकन, यूनाइटेड और प्रेसबेटेरियन चर्च द्वारा संचालित स्कूलों में 6000 बच्चों की संदिग्ध मृत्यु हुई। 1967 में ब्राजील के मातो ग्रोसो क्षेत्र में सिन्ता लार्गा जनसंहार की यादें आज भी जीवंत हैं। इसमें रबर निकालने वाले ठेकेदारों ने सिन्ता लार्गा जनजातीय समुदाय पर हमला किया। 1940 से 1960 के बीच ऐसे ही हमलों में 3000 जनजातीय लोग मारे गए थे। इसमें 80 जनजातीयां विलुप्त हो गईं। उपनिवेशवादी ताकतों ने जनजातीय समाज के विरुद्ध जैविक युद्ध जैसे छोटे पॉक्स, खसरा फैलाए गए। इससे बड़ी संख्या में मौतें हुईं। बेनेडिक्टाइन मिशन (1909-1948)- इसके द्वारा ब्राजील के यानोमामी समूह का कन्वर्जन किया गया। इस समुदाय की शव यात्रा (रेआहू) पर प्रतिबंध लगा दिया गया, उनके मुकुट जब्त कर लिए गए।
औपनिवेशिक ताकतें जिसके अगुआई यूरोप और अमेरिका का सामंतवादी वर्ग कर रहा था उन्होंने जनजातीयों के साथ किए गए अत्याचार पर अपराध बोध के बजाय कोलंबस के आगमन की 500वीं वर्षगांठ (12 अक्टूबर 1992) को बड़े उत्सव का रूप दे दिया। अमेरिका में 12 अक्टूबर को कोलंबस डे घोषित कर दिया गया। इसे ‘डे ऑफ रेस’ अर्थात ‘यूरोपीय रेस’ का दिन भी कहते हैं।
अमेरिका ने कोलंबस डे को कायम रखते हुए जनजातीय समाज के लिए अलग से वर्ल्ड इंडीजिनस डे घोषित करने का फैसला किया। इसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए यूएन के मंच का दुरुपयोग किया गया। यूएन वर्किंग ग्रुप ऑफ इंडीजिनस पीपल की पहली बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी। बाद में इसी दिन को विश्व आदिवासी दिवस/विश्व मूल निवासी दिवस/वर्ल्ड इंडीजिनस डे के रूप में मान्यता दी गई। पश्चिम और यूरोप की औपनिवेशिक ताकतों ने भारत में भी जनजातीय समाज को तोड़ने और पृथक करने की पूरी कोशिश की। अंग्रेजी शासन के दौरान भारत में जमींदारी, रैयतवाड़ी और महालवाड़ी व्यवस्था लागू कर जनजातीय क्षेत्र से जबरन राजस्व वसूला जाता था। यहां तक की फॉरेस्ट एक्ट 1865 और 1878 के जरिए अंग्रेजों ने जनजातीय समाज को वन अधिकारों से वंचित किया। यहां तक की परमानेंट सेटलमेंट एक्ट 1793 के जरिए भी अंग्रेजों ने उन वन क्षेत्रों को सरकारी घोषित कर स्थानीय जनजातियों को बेदखल किया जो अपनी आजीविका के लिए वनों पर आश्रित रहते थे। औपनिवेशिक ताकतों की साजिशों के बावजूद यहां प्रकृति पूजक जनजातीय समाज अपने रीति रिवाज, संस्कृति, जीवन पद्धति के साथ सनातन व हिन्दुत्व के सभी जीवन मूल्यों के साथ सहकार करता समाज को दिशा देता रहा।
भारत में मिशनरियों द्वारा किए जा रहे कन्वर्जन से जनजातीय समाज की अस्मिता को बड़ा आघात पहुंचा है। जनजातीय समाज के आरक्षण पर भी सेंध लगाई जा रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार से जुड़े को अवसरों को छीनने का काम भी उस वर्ग ने किया जो न तो प्रकृति पूजक हैं न ही जनजातीय संस्कृति में उसकी कोई आस्था है। वर्ल्ड इंडीजिनस डे हमें ऐसी विधर्मी ताकतों से सजग रहने की याद दिलाता है। वर्ल्ड इंडीजिनस डे हमारे लिए उत्सव का नहीं बल्कि जनजातीय समाज के साथ पश्चिम के देशों में हुए शोषण और अत्याचार को याद करने का दिन है। हमारे लिए 15 नवंबर जनजातीय गौरव दिवस उत्सव का दिन है। यह हमारे पूज्य भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है, जिन्होंने जनजातीय समाज, उसकी संस्कृति व मूल्यों को नई ऊंचाई दी। भगवान बिरसा मुंडा ने कन्वर्जन के विरुद्ध अपना जीवन समर्पित कर दिया।

जया लक्ष्मी तिवारी

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