जलवायु न्याय में बेनकाब होते विकसित देश
अरविंद कुमार मिश्रा> जलवायु संकट का समाधान खोजने के लिए दुनिया भर में प्रयास हो रहे हैं, लेकिन अमीर देशों की कथनी-करनी में अंतर सबके सामने है। अजरबैजान के बाकू में 11 से 22 नवंबर तक आयोजित संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु सम्मेलन (कोप-29) समाप्त हो गया। यह वैश्विक जलवायु वार्ता प्रत्येक देश की नीतियों को समावेशी व पर्यावरण अनुकूल बनाने में सहायक हैँ। संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेशन (यूएनएफसीसीसी) एक बहुपक्षीय संधि है जिसे 1992 में अपनाया गया था। 1990 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल ( आईपीसीसी ) द्वारा पहली मूल्यांकन रिपोर्ट के बाद ग्रीनहाउस गैस सांद्रता को “उस स्तर पर स्थिर करने के लिए जो जलवायु प्रणाली के साथ खतरनाक मानवजनित हस्तक्षेप को रोक सके।” 1994 में लागू होने के बाद से, संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) ने अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ता के लिए आधार प्रदान किया है, जिसमें क्योटो प्रोटोकॉल (1997) और पेरिस समझौता (2015) जैसी ऐतिहासिक उपलब्धियां शामिल हैं।
इस बार हुए कोप-29 सम्मेलन में 300 अरब डॉलर धनी देशों द्वारा छोटे और विकासशील देशों को प्रति वर्ष दिए जाने पर सहमति बनी है। जलवायु संकट के समाधान के लिए क्षतिपूर्ति के रूप यह रकम 2035 तक खर्च की जाएगी। छोटे और विकासशील देश लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि जलवायु को हुए नुकसान की भरपाई के लिए लगभग एक हजार करोड़ रुपए सालाना की आर्थिक मदद दी जाए। इसकी प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि मौजूदा समय में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को 100 करोड़ रुपए दिया जा रहा है। इसकी अवधि 2025 में समाप्त हो रही है। यह राशि पारिस्थितिक तंत्र की पुर्नस्थापना, पर्यावरण अनुकूलन व न्यायोचित परिवर्तन (जस्ट ट्रांजिशन) से जुड़े कार्यक्रमों में खर्च होती। जलवायु अर्थव्यवस्था के लिए कोष तय होने से नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित करने, पूर्व चेतावनी प्रणाली से लेकर टिकाऊ विकास पर केंद्रित अवसंरचनाओं पर निवेश व नवाचार बढ़ता है। इस आर्थिक मदद से ग्लोबल वॉर्मिंग की सबसे अधिक मार झेल रहे उन 68 देशों को सबसे अधिक राहत मिलेगी, जिनके यहाँ दुनिया की 20 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। यह देश वैश्विक उत्सर्जन में सिर्फ 5 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं। जलवायु सम्मेलनों में यह देश वल्नरेबल-20 संगठन के जरिए अपनी आवाज मुखर करते हैं।
दो खेमों में बंटी दुनिया
कोप-29 में जिस तरह दुनिया दो खेमों में बंटी गई, वह मानवता के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इससे एक बार फिर साबित हो गया है कि धरती की सेहत को लेकर विकसित देश न सिर्फ गैर जिम्मेदार हैं बल्कि अब वह बेनकाब भी हो रहे हैं। जलवायु वित्त, क्षतिपूर्ति तथा आर्थिक सहयोग को लेकर विकसित अर्थव्यवस्थाएं अपने अडियल रवैये पर कायम हैं। 1990 में स्थापित 39 देशों के संगठन अलायंस ऑफ स्माल आईसलैंड स्टेट्स (एओएसआईएस) ने समझौते की भाषा पर आपत्ति जताते हुए विरोध दर्ज कराया है। इसे जलवायु कूटनीति में छोटे देशों की बढ़ती मौजूदगी के रूप में देखा जा रहा है। एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था रूप ले रही है, जिसके केंद्र में जलवायु पहल है। वैश्विक दक्षिण से लेकर द्वीपीय देशों के हितों को आवाज देकर भारत इस नई वैश्विक व्यवस्था की अगुआई कर रहा है। पिछले कई जलवायु सम्मेलनों में भारत ने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि भारत ने जलवायु न्याय की दिशा में न सिर्फ कड़े कदम उठाए हैं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संधियों व वार्ताओं के लक्ष्य को समय से पूर्व हासिल किया है। राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) इसका सबसे आदर्श उदाहरण है। भारत पेरिस समझौते के अंतर्गत यूएनएफसीसी में अपने अद्यतन एनडीसी जमा करने वाले अग्रणी देशों में शामिल है। जबकि अमेरिका जैसे देश आए दिन पेरिस समझौते से खुद को अलग करने का दबाव बनाते आए हैं। कोप-29 में भी भारत ने साफ शब्दों में विकसित देशों को आईना दिखाते हुए कहा, जलवायु संकट के प्रति यह अनिच्छा ठीक नहीं। भारतीय प्रतिनिधि चांदनी रैना ने इस समझौते पर अप्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा, “मुझे यह कहते हुए अत्यन्त खेद है कि यह दस्तावेज़ दृष्टि भ्रम के अलावा और कुछ नहीं है। हमारी राय में यह दस्तावेज़, हमारे सामने पेश चुनौतियों के विशाल दायरे का हल नहीं निकालेगा। इसलिए, हम इस दस्तावेज़ के पारित होने का विरोध करते हैं।” जलवायु सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के इन शब्दों को सुनते ही पूरा परिसर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
विकसित देशों का दोहरा चरित्र
जलवायु न्याय के लिए उठाए जाने वाले किसी भी कदम के लिए तकनीक और वित्त की आवश्यकता होती है। इस व्यावहारिक बात को नजरअंदाज कर धरती को हराभरा बनाने का कोई भी प्रयास सिर्फ लच्छेदार भाषण तक सीमित रह जाएगा। आज जो विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं जलवायु संकट के सबसे बड़े हिस्सेदार वही हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एक रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म ईंधन तथा भूमि के उपयोग में बदलाव से पैदा होने वाले कार्बन उत्सर्जन में लगभग 80 प्रतिशत हिस्सेदारी जी-20 अर्थव्यवस्थाओं की है। इसमें अमेरिका, चीन और यूरोपीय यूनियन सबसे अग्रणी हैं। अमेरिका में दुनिया की 4 प्रतिशत आबादी रहती है, जबकि 1850 से 2021 तक उसकी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 17 प्रतिशत की वैश्विक हिस्सेदारी रही है। औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित देशों का जहां संसाधनों पर नियंत्रण बढ़ा वहीं अत्यधिक भौतिकतावाद व उपभोग की प्रवृत्ति से उन्होंने पर्यावरण को जिस कदर नुकसान पहुंचाया है। इसका खामियाजा छोटे और द्वीपीय देश से लेकर विकासशील देशों को भूगतना पड़ रहा है। विकसित देश चाहते हैं कि नवीकरणीय ऊर्जा और जलवायु अनुकुलन को लेकर छोटे देशों पर भी वही शर्तें लागू हों जो विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए तय हों। यदि ऐसा होता है तो इसका सीधा असर विकासशील देशों की जनकल्याणकारी योजनाओं तथा आर्थिक विकास दर पर पड़ना तय है। ऐसे में इसके समाधान के लिए तकनीक और वित्त का सहयोग तंत्र विकसित करना होगा।
पिछले कई जलवायु सम्मेलनों से अर्जित परिणाम को यदि देखें तो लगभग हर बार एक समझौते को अंतिम रूप दिया जाता है, लेकिन पिछली सहमतियों के क्रियान्वयन में सबसे बड़े उत्सर्जक देश ही उदासीन नजर आते हैं। गत वर्ष संयुक्त अरब अमीरात के दुबई में आयोजित कोप-28 में हानि एवं क्षतिपूर्ति कोष का शुभारंभ किया गया था। यह जलवायु वित्त से अलग व्यवस्था करार दी गई थी, लेकिन इसका क्रियान्वयन कैसे होगा यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। पिछले कई जलवायु सम्मेलनों के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव के वक्तव्य में भी यह निराशा साफ झलकती है। कोप-29 में भी यूएन के मुखिया ने कहा, मुझे इससे कहीं अधिक महात्वाकांक्षी परिणाम की उम्मीद थी। वित्त और शमन दोनों ही मोर्चे पर चुनौतियां अधिक हैं। इस समझौते के ऊपरी लक्ष्य की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए सभी देशों को एकजुट होना होगा।
यूएन को बढ़ानी होगी भूमिका
पिछले कुछ सालों में जलवायु सम्मेलनों से पर्यावरणीय संकट के समाधान की उम्मीद जगी है। संयुक्त राष्ट्र की संघ की पहल पर ही पेरिस समझौते (2015) से जुड़ी कई नीतिगत पहल जैसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान कार्यक्रम, कार्बन क्रेडिट, जलवायु वित्त, हानि एवं क्षतिपूर्ति कोष आदि अस्तित्व में आए हैं। धरती को जहरीले प्रदूषण से मुक्त करने वाली हर पहल अच्छे परिणाम लेकर आएगी, यदि उन्हें लागू करने में प्रत्येक देश के हितों का भी ध्यान रखा जाए। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में जलवायु सम्मेलनों में तय हुए समझौते व संधियों के क्रियान्वनय की गति जहां धीमी है वहीं उनके प्रति उदासीनता भी कम नहीं है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ को भयावह होते जलवायु संकट के इस दौर में अपनी भूमिका पुन: परिभाषित करनी होगी। कोप-29 में संयुक्त राष्ट्र संघ समर्थित वैश्विक कार्बन बाजार के लिए नियमों पर सहमति बनी है। इससे कार्बन क्रेडिट खरीदने और बेचने के नियम आसान बनेंगे। इसका सीधा असर जलवायु अनुकूल परियोजनाओं के लिए धन जुटाने में होगा। हालांकि वैश्विक कार्बन बाजार को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की पहल कछुआ चाल ही कही जाएगी। कार्बन बाजार का सीधा लाभ उन देशों को मिलेगा जो अपनी प्रतिबद्धताएं पूरी कर रहे हैँ। भारत समेत विश्व भर में कार्बन बाजार की व्यवस्था विकसित होने से पर्यावरण अनुकूल उत्पादों, सेवाओं, ईंधन, नवाचार में निवेश बढ़ेगा। इससे एक देश दूसरे देश को कार्बन क्रेडिट बेच सकेगा। देश में ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) ने गाइडलाइंस जारी की हैँ।
वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियश से नीचे सीमित रखने तथा पेरिस समझौते में किए गए वादे के अनुसार इसे 1.5 डिग्री सेल्सियश तक लाने के लिए देशों को 2030 तक प्रतिवर्ष 30 गीगाटन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। एक अध्ययन के अनुसार 2023 में विश्व में जीवाश्म ईंधन की खपत और उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंच चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2030 से 2050 तक जलवायु संकट की वजह से 2 लाख 50 हजार अतिरिक्त मौत होंगी। 3.6 अरब लोग ऐसे स्थानों पर रह रहे हैं, जो पर्यावरणीय दृष्टि से अतिसंवेदनशील हैं। ऐसे में पर्यावरण को बचाने के लिए अपनी ढपली अपना राग छोड़कर विश्व के हर देश को एकजुट और गंभीर प्रयास करने होंगे। वर्ष 2025 का कोप-30 सम्मेलन, ब्राज़ील के पूर्वी ऐमेजॉन इलाक़े बेलेन में होगा। उम्मीद है कि अगले जलवायु सम्मेलन से पहले जी-7, जी-20 से लेकर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंच जलवायु प्रतिबद्धताओं को लेकर अपनी भूमिका पर विलंब करने के बजाय उस पर प्रभावी कार्रवाई करेंगे।