स्टालिन को क्यों नहीं भाती हिंदी?

क्या सेकुलरवाद वह मुखौटा है, जिसके पीछे हर पाप को छिपाया जा सकता है? अभी हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) के मुखिया एम.के. स्टालिन, हिंदी के प्रति अपने विरोध में इतना आगे बढ़ गए कि उन्होंने 2025-26 के प्रादेशिक बजट में भारतीय रुपये के आधिकारिक प्रतीक (₹) को तमिल अक्षर ‘ரூ’ से बदल दिया। इसका मतलब भी तमिल लिपी में ‘रु’ ही है। द्रमुक विपक्षी इंडी गठबंधन का प्रमुख हिस्सा है और तमिलनाडु की द्रमुक सरकार में कांग्रेस उसकी सहयोगी है। इस मामले में तथाकथित सेकुलरवादियों ने इस दुस्साहस का विरोध तो दूर, इसका संज्ञान तक लेना उचित नहीं समझा। क्यों? शायद इसलिए, क्योंकि उनकी नजर में द्रमुक ‘सेकुलर’ है।
हिंदू, हिंदी और उत्तर-भारत के प्रति घृणा द्रमुक की विभाजनकारी राजनीति का मूलाधार है, जोकि न केवल औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित है, बल्कि इसे सेकुलरवाद की आड़ में आज भी ढोया जाता है। इससे पहले जब स्टालिन के 46 वर्षीय बेटे और वर्तमान उप-मुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने वर्ष 2023 में सनातन संस्कृति पर भद्दी टिप्पणी करते हुए उसकी तुलना डेंगू-मलेरिया-कोरोना आदि बीमारियों से करते हुए उसे मिटाने की बात कही थी, तब भी कांग्रेस सहित स्वघोषित सेकुलरवादी दल या तो इसपर मौन थे या फिर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इसका समर्थन कर रहे थे।
स्टालिन तथाकथित भाषा विवाद को लेकर मोदी सरकार पर हमलावर हैं। अब स्टालिन का यह विवाद कितना बेतुका, बचकाना और तथ्यहीन है, यह इस बात से स्पष्ट है कि भारतीय रुपये के प्रतीक ₹ का जन्म कांग्रेस नीत संप्रग शासनकाल (2004-14) में हुआ था, जिसमें द्रमुक की भी केंद्र में भागीदारी थी और उसके आधा दर्जन नेता डॉ.मनमोहन सरकार में मंत्री-राज्यमंत्री थे। यही नहीं, रुपये प्रतीक की रचना तमिलनाडु में जन्में शिक्षाविद उदयकुमार धर्मलिंगम ने वर्ष 2010 में ही की थी, जोकि पूर्व द्रमुक विधायक के बेटे है। तब देश के तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में वित्त मंत्रालय ने एक खुली प्रतियोगिता आयोजित की थी, जिसमें 3,300 डिजाइनों में से उदय का डिजाइन चुना गया। यह चिह्न देवनागरी के ‘र’ और रोमन ‘R’ का मिश्रण है, जिसमें ऊपर दो क्षैतिज रेखाएं हैं, जो राष्ट्रीय ध्वज और ‘बराबर’ (=) के संकेत को दर्शाती हैं। इसे 15 जुलाई 2010 को आधिकारिक तौर पर अपनाया गया था। हालिया विवाद पर उदय ने मीडिया से बात करते हुए कहा, “…मैंने इसे 15 साल पहले डिज़ाइन किया था और मुझे खुशी है कि यह आज इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन मुझे ऐसे विवाद की उम्मीद नहीं थी।” सवाल यही है कि जब ‘₹’ कांग्रेस के शासनकाल, जिसमें द्रमुक भी सहयोगी थी— तो अब इसका विरोध क्यों किया जा रहा है? कहीं इसका उत्तर तमिलनाडु में अगले साल होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में तो नहीं छिपा है?
अक्सर, अन्य स्वयंभू सेकुलरवादी दलों के साथ द्रमुक भी ‘एक देश, एक चुनाव’, ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ और ‘वक्फ अधिनियम संशोधन विधेयक’ आदि को ‘संविधान-विरोधी’ बताकर इनकी मुखालफत कर रहे है। इसे दोगलेपन की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि आज द्रमुक संविधान-संविधान रट रही है, जबकि उसके नेताओं ने एक नहीं, बल्कि दो बार संविधान की प्रतियां जला कर इसका अपमान किया है। नवंबर 1963 में, द्रमुक के संस्थापक नेता सी.एन. अन्नादुरई ने लगभग 500 पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ संविधान की प्रतियां जलाईं थी, जिसके अनुच्छेद 343 में हिंदी को संघ की राजभाषा और देवनागरी को इसकी लिपि के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसी तरह का संविधान-विरोधी कृत द्रमुक ने नवंबर 1986 में भी दोहराया था, जिसमें 10 द्रमुक विधायकों को विधानसभा से निलंबित कर दिया गया था।
निसंदेह, संस्कृत और तमिल भारत की सबसे प्राचीन भाषाएं है। आखिर द्रमुक का चिंतन हिंदू-हिंदी के प्रति नफरत से इतना सराबोर क्यों है? वास्तव में, यह प्रपंच ब्रितानियों द्वारा अपने राज को बरकरार रखने के लिए गढ़े नैरेटिवों में से एक है। इसकी जड़ें ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अपने वर्ष 1813 के चार्टर में जोड़े गए विवादित अनुच्छेद में मिलती है, जिससे ब्रितानी पादरियों और ईसाई मिशनरियों को अंग्रेजों के सहयोग से स्थानीय भारतीयों का मतांतरण करने का रास्ता साफ हुआ था।
बलबीर पुंज, पूर्व राज्यसभा सांसद, वरिष्ठ पत्रकार, संपादक एवं ख्यातिप्राप्त स्तंभकार