बीज व उनकी गुणवत्ता किसी भी फसल, उसकी पैदावार तथा खाद्यान की पोषक क्षमता का आधार है। सत्तर के दशक में आई हरित क्रांति की सफलता के पीछे बीज, उर्वरक और तकनीक अहम कारक थे। इससे पैदावार तो बढ़ी लेकिन कुछ ही फसलों पर निर्भरता और लागत में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। रासायनिक खाद तथा पानी की खपत बढ़ने का सीधा असर मिट्टी और इंसान की सेहत पर पड़ा। कुछ दशक पहले तक किसान अपने खेतों से तैयार फसल से बीज संग्रहित करते थे। समय के साथ अधिक पैदावार के नाम पर उन्नत और संकर (हाइब्रिड) बीज बाजार में आ गए। यदपि संकर बीज फलों एवं सब्जियों के उत्पादन में उल्लेखनीय स्थान रखते हैं। आनुवांशिक रूप से परिशोधित बीजों ने खाद्यान आत्मनिर्भरता लाने के साथ कुपोषण की जंग को आसान बनाया है, लेकिन संकर बीजों की पहली पीढ़ी के बाद उत्पादन क्षमता कम होने लगती है। इस वजह से किसानों को साल दर साल बीज बदलना पड़ता है। उन्नत बीज से अधिक पैदावार की सुनहरी तस्वीर भले नजर आती है, लेकिन बेतहाशा इस्तेमाल होने वाले रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवार और मानवीय सेहत पर पड़ने वाले नुकसान की अनदेखी नहीं की जा सकती।
सहकारिता मंत्रालय की पहल
कुछ समय पहले केंद्रीय सहकारिता मंत्रालय ने भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड (बीबीएसएसएल) की स्थापना की है। यह बीज के अनुसंधान और उन्हें प्रमाणित करने का काम करेगी। इसका एक अहम उद्देश्य सहकारिता के जरिए परंपरागत बीजों का संरक्षण भी है। इससे आयातित बीजों पर निर्भरता कम होगी। वर्तमान में देश में सालाना 465 लाख क्विंटल बीज की आवश्यकता होती है। इसमें 165 लाख क्विंटल ही सरकारी स्तर पर उत्पादित है। भारत का घरेलू बीज बाजार वैश्विक बाजार में सिर्फ 4.5 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। बीज का उत्पादन अभी भी किसान ही करते हैं, लेकिन उसके विपणन में कृषक भागीदारी न के बराबर है। बीबीएसएसएल की स्थापना से सहकारी समितियां, स्व सहायता समूह और कृषि उत्पादक संगठन (एफपीओ) देसी और उन्नत बीजों के संवर्धन और विपणन में आगे आएंगे। इससे बीज उत्पादन और वितरण की व्यवस्था विकेंद्रित होगी। अंतत: यह बीज उत्पादन और विपणन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार को कम करेगा।
पारंपरिक बीजों की जलवायु अनुकूलता
भारत भौगोलिक एवं जनसांख्यिकी विविधताओं से भरा देश है। यहां हर ब्लॉक और जिले के मिट्टी की तासीर पृथक है। उदाहरण के लिए पश्चिमी उत्तरप्रदेश की मिट्टी धान, गेहूं और टमाटर की जिन किस्मों के लिए अनुकूल है, वही किस्म छत्तीसगढ़ में अनुकूल हो ऐसा आवश्यक नहीं है। परंपरागत बीज कई दशकों से स्थानीय जलवायु और मिट्टी से रचे बसे होते हैं। कम बारिश और ओस में भी यह बीज फसल तैयार कर लेते हैं। इन बीजों से तैयार पौधों में जल संचयन क्षमता संकर बीज के मुकाबले अधिक होती है वहीं हाइब्रिड और जीएम बीज पूरा पानी जमीन से ही अवशोषित करते हैं। जल संकट के इस दौर में यह किसी चुनौती से कम नहीं। बीज की देसी प्रजातियां रोग प्रतिरोधक और कीट प्रतिरोधक होने के साथ जैविक खाद के अनुकूल होती हैं। संकर बीज के उलट पारंपरिक बीज के गुण पांच-छह साल तक स्थिर रहते हैं, इसलिए किसानों के लिए यह लागत सक्षम होते हैं।
बीज उत्पादन का हो स्थानीयकरण
परंपरागत बीज के उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती किसानों के प्रशिक्षण का अभाव है। वर्तमान में कुल बीज उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत औपचारिक क्षेत्र से आता है। देसी बीज के प्रमाणीकरण की व्यवस्था खड़ी करनी होगी। अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों से बीज का संग्रहण हो। यह काम ब्लॉक और प्राथमिक सहकारी समितियों के स्तर पर होना चाहिए। रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक और खरपतवार नाशक इस्तेमाल इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि किसान अपने खेत की पोषक स्थिति से परिचित नहीं होते। इस चुनौती से निपटने के लिए मृदा परीक्षण की योजनाओं को जमीनी स्तर पर उतारना होगा। ऐसा नहीं है कि देसी बीज की सभी प्रजातियां उच्च गुणवत्ता की हैं। इन्हें आज के जलवायु के अनुकूल बनाना होगा। इसके लिए तय अंतराल के बाद इनका संग्रहण और परिशोधन आवश्यक है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हो स्थानीयकरण
हमारे यहां आज भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दशकों पुरानी व्यवस्था चली आ रही है। एक राज्य में स्थानीय सरकार वहां के किसानों से तय समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीदी करती है, उसी राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दूसरे राज्य से लाए गए खाद्यान का वितरण होता है। कई खाद्यान उसी राज्य और जिले में उत्पादित होने पर भी उनकी खपत वहां नहीं हो पाती। ऐसे में भण्डारण और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विकेंद्रीकरण और स्थानीयकरण की जरुरत है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में स्थानीय अनाज जैसे श्रीअन्न को शामिल करने से कृषि व्यवस्था मजबूत होगी। वहीं इससे एक स्वास्थ्य (वन हेल्थ) का लक्ष्य पूरा होगा। हालही में उत्तरप्रदेश सरकार ने गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए नि:शुल्क श्रीअन्न वितरण की योजना शुरू कर अभिनव प्रयास किया है।
देसी बीज जैविक खाद के अनुकूल
आज जलवायु परिवर्तन का असर कृषि व्यवस्था पर सबसे अधिक पड़ रहा है। किसान परिशुद्ध और जैविक खेती अपनाएं इसके लिए सिर्फ देसी बीज पर्याप्त नहीं हैं। देसी बीज के अनुकूल जैविक खाद की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। इंडियन जर्नल ऑफ फर्टिलाइजर में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक कृषि खाद्यान उत्पादन में लगभग 40 प्रतिशत हिस्सेदारी रासायनिक उर्वरक की है। इससे संकर बीजों से पैदावार हासिल करने में होने वाली लागत का सहज आकलन किया जा सकता है। रासायनिक खाद पर जिस तरह सरकारें सब्सिडी देती हैं, जैविक खाद पर भी प्रदान की जा सकती है। फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए देसी बीज से तैयार फसलों को बढ़ावा देने के साथ उनके लिए पृथक खरीदी व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए।
देसी बीज की गुणवत्ता बढ़ाने का प्रयास
केंद्र सरकार किसानों द्वारा सहेजे गए देसी बीजों की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए लिए 2014-15 से बीज ग्राम कार्यक्रम (बीज ग्राम योजना) लागू कर रही है। इस कार्यक्रम के तहत प्रति किसान एक एकड़ तक अनाज की फसलों के लिए बीज लागत का 50 प्रतिशत और दलहन, तिलहन और चारा के लिए 60 प्रतिशत पर आधार/प्रमाणित बीजों के वितरण के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के तत्वावधान में राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली (एनएआरएस) ने दालों सहित विभिन्न फसलों की क्षेत्र विशिष्ट, उच्च उपज देने वाली और जलवायु के अनुकूल किस्में विकसित की हैं। 2014 के बाद से अबतक देश में 14 दलहनी फसलों की कुल 369 किस्में जारी और अधिसूचित की गई हैं। देसी और उन्नत किस्म की पादप प्रजातियों के विकास तथा किसानों के अधिकारों के संरक्षण की दिशा में 2001 में पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम लागू किया गया। इसके अंतर्गत स्थापित प्राधिकरण (पीपीवीएफआरए) बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) एवं पेटेंट के नाम पर दखल से किसानों के हितों की रक्षा करता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संगठन में वैज्ञानिक डॉ जयप्रकाश बिसेन के मुताबिक ‘‘पारंपरिक बीज को जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से उन्नत बीजों में तब्दील किया जा सकता है। पारंपरिक बीजों के संवर्धन के लिए विभिन्न फसलों में पाए जाने वाले भूप्रजातियों व जननद्रव्यों की खोज करने के साथ जीन बैंकों द्वारा इसका संरक्षण किया जाता है। नई किस्मों के विकास के लिए परंपरागत बीजों का आनुवांशिक पदार्थों के रूप में आदान-प्रदान करना होगा। राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान कटक 4एस4आर परियोजना के अंतर्गत कृषि उत्पादक संगठनों को बीज उत्पादन के लिए सशक्त बनाया जाता है।’’